श्रीरामावतार में जब नारायण अपनी लीला समाप्त कर अपने दिव्य साकेत लोक को जा रहे थे, तब उनके साथ समस्त अयोध्यावासी, उनके परिकर, सेवक सभी उनके साथ जाने को सरयुजी पहुँचे, पर हनुमानजी एक किनारे पर हाथ जोड़ कर खड़े थे। जब यह दृश्य रामजी ने देखा तो हनुमान जी से बोले हनुमान तुम तो हमारे परम प्रिय भक्त हो (रघुपति प्रिय भक्तं) हमारे साथ हमारे साकेत लोक नहीं चलोगे?
हनुमानजी ने कहा की प्रभु एक बात बताइये, आप के उस दिव्य साकेत लोक में मुझे आप की कथा सुनने को मिलेगी या नहीं? श्रीरामजी ने कहा वहाँ न तो कथा वक्ता है और न ही वह कोई कथा होती है, पर वहा मै तो तुम्हे प्राप्त रहूँगा।
हनुमानजी ने कहा कि हे प्रभु आप तो मुझे मेरे ह्रदय पटल में धनुष बाण लिए नित्य प्राप्त हो (जासु ह्रदय आगार बसहि राम सरचाप धर), पर यदि किसी स्थान में आप की कथा न हो, आप के गुणानुवादो का गान न हो, तो ऐसा स्थान मेरे किस काम का? मुझे तो केवल आप की गुणो, कथाओ, और लीलाओ को श्रवण करने में ही आनंद आता है (1. यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तनं तत्र-तत्र कृत मस्त कांचनम 2 राम चरित सुनिबे को रसिया)। हनुमानजी कहते है कि हे प्रभु मुझे तो जहा जहा आप की कथा होती है वहा बिन बुलाय जाने में भी आनंद है। जिस स्थान में आपकी कथा होती है मुझे उस स्थान में जा कर किसी कोने में बैठ कर आप की कथा श्रवण करने में ही आनंद आता है अतः आप साकेत लोक पधारिये मुझे यही रह कर अपनी कथा का दिव्य आनंद प्रदान कराते रहिये।
हनुमानजी की बातें सुन कर रामजी अत्यंत प्रसन्न हुए।
रामजी ने हनुमानजी को अपना प्रिय भक्त ( रघुपति प्रिय भक्तं) और चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे कर अपने साकेत लोक को प्रस्थान किये।
इस प्रकार हनुमान जी ने राम जी के साथ उनके दिव्य बैकुंठ लोक जाना अस्वीकार कर दिया और यही धारा धाम में रह कर यत्र तत्र विचरण कर भगवान् की कथाओ का नित्य श्रवण करने लगे और आज भी जब कभी भगवान् की कथा होती है हनुमानजी उस स्थान पर उपस्थित होते है और कथा श्रवण करते है।
पं. आशुतोष चौबे |
जय श्रीराम।
जय हनुमान।
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