बुधवार, 7 मार्च 2018

हिन्दू दर्शन में नारी का स्थान!!

        हमारे गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति के अनुसार नारी शक्ति के मातृ स्वरूप की महिमा विषय पर आज का यह लेख है। नारी हमारे भारतीय समाज मे अनेक स्वरूप में स्थान प्राप्त करती है। वह माँ है, बेटी है, पत्नी है, बहन है परंतु नारी का सबसे ऊँचा स्वरूप मातृ शक्ति के रूप में होता है। हमारे भारतीय दर्शन के अनुसार संसार का हर रिश्ता कोई न कोई स्वार्थ से बंधा होता है, पर माँ और उसके शिशु का रिश्ता बिना किसी स्वार्थ के होता है, और यही कारण है जो नारी शक्ति को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है।
        हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सभी 'माँ' की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों और कलमकारों ने भी 'माँ' के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का सम्पूर्ण प्रयास किया है। इन सबके बावजूद 'माँ' शब्द की समग्र परिभाषा और उसकी अनंत महिमा को आज तक कोई शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाया है।
        हमारे देश भारत में 'माँ' को 'शक्ति' का रूप माना गया है और भगवान शिव को भी शक्ति के बिना शव के रूप में बताया गया है। वस्तुतः वे लिंग भेद से पृथक है पर जब इस संसार मे जीवो की सृष्टि करनी होती है तब उन परबब्रह्म परमेश्वर को भी अर्धनारीश्वर स्वरूप धारण करना पड़ता है। चाहे कोई भी देवता हो बिना अपनी शक्ति के वे शून्य के समान है।


        वेदों में 'माँ' को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। इस श्लोक में भी इष्टदेव को सर्वप्रथम 'माँ' के रूप में की उद्बोधित किया गया है-

'त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देव देवः।।'
        वेदों में 'माँ' को 'अंबा', 'अम्बिका', 'दुर्गा', 'देवी', 'सरस्वती', 'शक्ति', 'ज्योति', 'पृथ्वी' आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके अलावा 'माँ' को 'माता', 'मात', 'मातृ', 'अम्मा', 'अम्मी', 'जननी', 'जन्मदात्री', 'जीवनदायिनी', 'जनयत्री', 'धात्री', 'प्रसू' आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
ऋग्वेद में 'माँ' की महिमा का यशोगान कुछ इस प्रकार से किया गया है, 

        'हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम−परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।'
सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, 

        'हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।'
        प्राचीन ग्रन्थों में कई औषधियों के अनुपम गुणों की तुलना 'माँ' से की गई है। एक प्राचीन ग्रन्थ में आंवला को 'शिवा' (कल्याणकारी), 'वयस्था' (अवस्था को बनाए रखने वाला) और 'धात्री' (माता के समान रक्षा करने वाला) कहा गया है। राजा बल्लभ निघन्टु ने भी एक जगह 'हरीतकी' (हरड़) के गुणों की तुलना 'माँ' से कुछ इस प्रकार की है-

'यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरितकी।'

        (अर्थात, हरीतकी (हरड़) मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली होती है।)
       श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि 'माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापों को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए हमेशा सुरक्षा का कवच का काम करती है।' इसके साथ ही श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि 'माँ' बच्चे की प्रथम गुरु होती है।'
रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से 'माँ' को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं-

                                             'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।'

       (अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)

        महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि 'भूमि से भारी कौन?' तब युधिष्ठर जवाब देते हैं-

'माता गुरुतरा भूमेरू।'

        (अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।)

        महाभारत में अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि-

       'भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरु नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।'

        इसके साथ ही महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने 'माँ' के बारे में लिखा है-

'नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।'

        (अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।)

        तैतरीय उपनिषद में 'माँ' के बारे में इस प्रकार उल्लेख मिलता है-

'मातृ देवो भवः।'

        (अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।)
       संतों का भी स्पष्ट मानना है कि 'माँ' के चरणों में स्वर्ग होता है।' आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी कालजयी रचना 'सत्यार्थ प्रकाश' के प्रारंभिक चरण में 'शतपथ ब्राह्मण' की इस सूक्ति का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है-

'अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।'

       (अर्थात, जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।)
        'माँ' के गुणों का उल्लेख करते हुए आगे कहा गया है-

'प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।'

        (अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।)
         'चाणक्य−नीति' के प्रथम अध्याय में भी 'माँ' की महिमा का बखूबी उल्लेख मिलता है। यथाः

'रजतिम ओ गुरु तिय मित्रतियाहू जान।
निज माता और सासु ये, पाँचों मातृ समान।।'

        (अर्थात, जिस प्रकार संसार में पाँच प्रकार के पिता होते हैं, उसी प्रकार पाँच प्रकार की माँ होती हैं। जैसे, राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी मूल जननी माता।)

        'चाणक्य नीति' में कौटिल्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि:-

'माता के समान कोई देवता नहीं है। 'माँ' परम देवी होती है।'
         महर्षि मनु ने 'माँ' का यशोगान इस प्रकार किया है-

'दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण 'माँ' होती है।'


       महान भारतीय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचना में 'माँ' की महिम कुछ इस तरह बयां की-

'स्वर्ग से भी श्रेष्ठ जननी जन्मभूमि कही गई।
सेवनिया है सभी को वहा महा महिमामयी'।।

         (अर्थात, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कही गई हैं। इस महा महिमामयी जननी और जन्मभूमि की सेवा सभी लोगों को करनी चाहिए।)
        इसके अलावा श्री गुप्त ने 'माँ' की महिमा में लिखा है-

'जननी तेरे जात सभी हम, जननी तेरी जय है।'
        इसी क्रम में रामचरित उपाध्याय ने अपनी रचना 'मातृभूमि' में कुछ इस प्रकार 'माँ' की महिमा का उल्लेख किया है-

                                               'है पिता से मान्य माता दशगुनी, इस मर्म को,
                                                    जानते हैं वे सुधी जो जानते हैं धर्म को।'

        (जो बुद्धिमान लोग धर्म को मानते हैं, वे जानते हैं कि माता पिता से दस गुनी मान्य होती है।)
इसके साथ ही 'माँ' के बारे में एक महाविद्वान ने क्या खूब कहा है, 

'कोमलता में जिसका हृदय गुलाब सी कलियों से भी अधिक कोमल है तथा दयामय है। पवित्रता में जो यज्ञ के धुएं के समान है और कर्त्तव्य में जो वज्र की तरह कठोर है−वही दिव्य जननी है।'
          नारी इस सृष्टि और प्रकृति की 'जननी' है। नारी के बिना तो सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी शाश्वत सत्य को हरियाणा के सिरमौर कवि पं. मांगे राम ने अपने प्रख्यात साँग 'शकुन्तला−दुष्यन्त' में कुछ इस प्रकार समाहित किया है-

'स्त्री ना होती जग म्हं, सृष्टि को रचावै कौण।
ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनों, मन म्हं धारें बैठे मौन।
एक ब्रह्मा नैं शतरूपा रच दी, जबसे लागी सृष्टि हौण।'

        (अर्थात, यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने नारी की रचना की, तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई।)

देवी अपराध क्षमापना स्तोत्र में एक श्लोक आता है:-

"कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥"

        (अर्थात पुत्र कुपुत्र कदाचित हो भी जाये पर माता कभी कुमाता नही होती)
       
        कुल मिलाकर, हमारी भारतीय संस्कृति नारी शक्ति की स्वरूप जननी 'माँ' की अपार महिमा का यशोगान करता है। भारीतय धर्म और संस्कृति में 'माँ' के अलौकिक गुणों और रूपों का उल्लेखनीय वर्णन मिलता है। हिन्दू धर्म में देवियों को 'माँ' कहकर पुकारा गया है। धार्मिक परम्परा के अनुसार धन की देवी 'लक्ष्मी माँ', ज्ञान की देवी 'सरस्वती माँ' और शक्ति की देवी 'दुर्गा माँ' मानीं गई हैं। नवरात्रों में 'माँ' को नौ विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। 

        नारी है तो हमारा अस्त्तित्व है नारी के बिना इन सृष्टि की कल्पना भी नही की जा सकती। अतः हर प्रकार रूप में काहे वह माँ हो बहन हो बेटी हो पत्नी हो नारी सदैव आदर-सम्मान के योग्य है। वह समाज जहां नारी का सम्मान नही होता उस समाज का पतन निश्चित है। नारी जहाँ भी रहे वह उस स्थान को स्वर्ग बना देती है।

रविवार, 14 जनवरी 2018

बाल्यकाल में एक मदारी ने कराई थी हनुमानजी की श्रीराम से भेंट!!


हम सभी जानते है कि हनुमानजी श्रीराम के अनन्य भक्त है और मानस के अनुसार उनकी प्रथम भेंट ऋषिमुख पर्वत पर हुई थी। परंतु एक कथा और भी प्रचलित है जिसमे श्रीराम और हनुमान बाल्यकाल में भी कुछ समय साथ मे व्यतीत किये है।

एक बार की बात है, श्रीहनुमान जी के मन मे, जो कि साक्षात रुद्र के अवतार है, बाल्यकाल में श्रीराम से मिलने की उत्कट उत्कंठा हुई। उन्होंने अपनी माँ अंजनी से कहा तो माता ने शिव जी की आराधना करने को कहा। हनुमान जी तुरंत शिवलिंग का निर्माण कर श्रद्धा भाव से उनके भजन पूजन में लग गए। उधर शिवजी ने देखा कि हनुमान श्रीराम से मिलने की कामना लिए मेरी भक्ति कर रहा है, तो शिवजी हनुमान के सामने प्रकट हुए और बालक हनुमान से कहने लगे कि- कहो वत्स तुम किस कामना को मन मे लिए मेरी भक्ति कर रहे हो। हनुमानजी ने शिवजी को प्रणाम कर श्रीराम से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की। तब शिवजी ने कहा कि एक उपाय है जिससे हम दोनों उनके बाल स्वरूप के दर्शन कर सकते है। हनुमानजी ने कहा कि बताइये प्रभु मैं कैसे उनसे मिल सकता हूँ। 

तब शिवजी ने कहा कि तुमने वानर के रूप में अवतार लिया है तो वानर रूप में ही उनके पास चलो और मैं तुम्हे नचाने वाला मदारी बन कर उनके पास ले जाऊंगा। तब शिवजी डमरू बजाते हुए एक मदारी का वेश बनाकर हनुमान जी को नचाते हुए अयोध्या ले गए और दशरथ जी के महल के सामने जोर जोर से डमरू बजाने लगे। उधर श्रीराम ने जब देखा कि उनके प्रभु शिवजी स्वयं उनसे मिलने के लिए एक मदारी बनकर आये है और साथ मे उनके परम भक्त हनुमानजी को भी साथ लेकर आये है, तब उन्होंने माता कौशल्या से उस मदारी का खेल देखने की इच्छा व्यक्त की। माता ने अनुमति दे दी और चारो भाई मदारी का खेल देखने महल के बाहर आ गए। अब शिवजी डमरू बजाते और हनुमानजी अन्य वानरो की भांति नृत्य करते। इसप्रकार श्रीराम और हनुमान जी की भेंट शिवजी ने बाल्यकाल में ही करा दी थी।

जब खेल समाप्त हुआ और मदारी बने शिवजी हनुमानजी को लेकर अयोध्या से वापस हुए, तब श्रीराम उदास हो गए और भोजन का त्याग कर दिया, माता कौशल्या को जब यह बात पता चली तब उन्होंने राज वैद्य को बुलवाया पर वैध के पल्ले भी कुछ बात नही पड़ी और रामजी उदास के उदास ही बने रहे। फिर माता कौशल्या ने श्रीराम से उनकी उदासी का कारण पूछा तब उन्होंने कहा कि मुझे एक बन्दर चाहिए। माता ने तुरंत सेवकों को आज्ञा दी सेवको ने बहुत सारे वानर ला दिए, पर श्रीराम किसी भी वानर को देख कर प्रसन्न नही हुए। अंत मे जब यह बात वशिष्ठ जी को पता चली, तो उन्होंने अपने योग के प्रभाव से ध्यान लगाकर सब बात जान लिया और सेवको को आज्ञा दी कि किष्किंधा में जाकर अंजनी के पुत्र को ले आओ तो राम के शोक का निवारण हो जाएगा। तब सेवको ने जाकर हनुमान जी को लाया और श्रीराम का शोक दूर हुआ। इस प्रकार हनुमान जी बाल्यकाल में कुछ समय तक श्रीराम के साथ अयोध्या में ही निवास किये और विविध लीलाएं की। 

श्रीराम की पतंग जो उड़ते हुए स्वर्ग तक पहुँच गई!!

श्रीरामावतार में प्रभु जब अपनी बाल लीला कर रहे थे, तब एक बार मकर संक्रांति के दिन अयोध्या के राजा दशरथ जी अपने चारो पुत्रों-राम, भारत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को साथ लेकर सरजू नदी के पावन तट पर पहुँचे। वहां मकर संक्रांति का उत्सव चल रहा था। अयोध्या वासी नर-नारी सभी संक्रांति पर सरजू स्नान और दान-पुण्य आदि कर रहे थे, साथ ही वहाँ एक विशाल मेले का भी आयोजन था। छोटे बच्चे सरजू के किनारे पतंग लेकर खेल रहे थे। तभी श्रीराम ने भी उन बच्चो को पतंग उड़ाते देख कर अपने पिता दशरथ जी से पतंग उड़ाने की इच्छा व्यक्त किये। दशरथ जी ने मेले से चार सुंदर पतंग लेकर चारो भाइयो को दे दिए।

फिर चारो भाई अपनी अपनी पतंग लेकर सरजू नदी के किनारे उड़ाने लगे। सबसे कम ऊंचाई पर शत्रुघ्न जी का पतंग, फिर उससे ऊपर लक्ष्मण जी का, फिर भरत जी का और फिर सबसे ऊपर श्रीराम का पतंग उड़ रहा था। कथा आती है कि श्रीराम का पतंग उड़ते उड़ते स्वर्ग लोक तक जा पहुंचा। स्वर्ग में देवराज इंद्र के बेटे जयंत की पत्नी ने जब देखा कि यह कैसी विचित्र बात है कि पृथ्वी लोक का यह पतंग उड़ता हुआ यहाँ देवलोक तक आ गया। कौतूहल वश जयंत की पत्नी ने उस पतंग को अपने पास यह सोचकर रख लिया कि पतंग जिसका होगा वह इसे लेने अवश्य ही आएगा तो मै उस अद्भुद मानव को देख भी लूँगी।

उधर धरती पर जब श्रीराम ने देखा कि सभी भाइयो की पतंग वापस आ गई, पर उनका पतंग नही अब तक वापस नही आया तब उन्होंने लौकिक व्यवहार करते हुए अपने मुख मण्डल पर निराशा के भाव लाते हुए अपने प्रिय दास हनुमानजी को (हनुमान जी का श्रीराम से बाल्यावस्था में मिलने की कथा जानने के लिए यहाँ क्लिक करें) कहा कि हे हनुमान हमारे सभी भाइयो के पतंग वापस आ गए पर मेरी पतंग अभी तक वापस नही आई तुम जाकर देखो। 

हनुमानजी तो हमेशा राम काज करने को आतुर रहते है। जैसे ही उन्हें श्रीराम ने पतंग का पता लगाने को कहा, तुरंत आकाश की तरफ वायु वेग से दौड़ पड़े और उड़ते-उड़ते स्वर्ग पहुंच गए। बहुत ढूंढने के बाद जब उन्हें पता चला कि श्रीराम की पतंग इन्द्र पुत्र जयंत की पत्नी के पास है, तब हनुमान जी जयंत की पत्नी के पास पहुंच कर पतंग उन्हें देने के लिए निवेदन किये। जयंत की पत्नी ने हनुमान जी से पूछा कि क्या यह पतंग आपकी है? हनुमान जी ने कहा नही!! यह पतंग मेरी नही है। तब जयंत की पत्नी ने कहा फिर आप इसे क्यो लेने आये है, जाइये और जिसकी पतंग है उसे ही भेजिए। जब तक मैं उस अनुपम पुरुष के दर्शन न कर लूं मै पतंग नही दूँगी। हनुमान जी ने सोचा कि ये देवी तो पतंग बिना श्रीराम के दर्शन किये देंगी नही, तो क्यो ना श्रीराम से ही निवेदन करू की स्वर्ग आकर इस देवी को दर्शन दे दे और पतंग ले जाये। 

मन मे विचार कर हनुमान जी वापस सरजू तट पर आ गये और श्रीराम को पूरी बात बताकर साथ स्वर्ग चलने को कहा। श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि हनुमान अभी हम स्वर्ग नही जा सकते तुम जाकर उस देवी से कहना कि वो हमारा पतंग वापस कर दे और चित्रकूट में जब हम सीता सहित निवास करेंगे तब अवश्य ही उस देवी को दर्शन देंगें। हनुमानजी ने स्वर्ग जा कर जयंत की पत्नी से सारी बात कही, तो उसने पतंग वापस कर दिया। हनुमान जी पतंग को लेकर वापस सरजू तट पर आए और श्रीराम को वह पतंग सौप दी। इसप्रकार श्रीराम की अनेक बाल लीलाओं में से एक यह मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने की लीला भी रसिक भक्तो के मन को मुग्ध कर देती है।

भाव पक्ष:- इस लीला में श्रीराम ईश्वर तत्व है, जयंत की पत्नी माया है, पतंग जीव है और  हनुमानजी महराज सद्गुरु है। संसार के प्रत्येक जीव रूपी पतंग की डोर तो उस ईश्वर के ही हाथ मे है, पर जब जीव की महत्वकांक्षा बढ़ती जाती है और वह ईश्वर से विमुख होकर अपने कामनाओ के पीछे भागना प्रारम्भ करता है, तब वह उड़ता हुआ ईश्वर से बहुत दूर निकल जाता है, और माया के बंधन में जाकर पूरी तरह जकड़ जाता है, माया के बंधनों में बंधा हुआ यह जीव जब माया के बंधनों से मुक्त होने के लिए उस परम पिता परमेश्वर को आर्त भाव से पुकारता है, तब वे  ईश्वर करुणा करके हनुमान जी के समान ही किसी अपने भक्त को सद्गुरु बनाकर भेजते है और वह सद्गुरु हमे इस माया के बंधन से मुक्त कराकर वापस उन्ही भगवान के श्रीचरणों में समर्पित कर देता है। 

अतः जीव को चाहिए कि वह अपने इस जीवन रूपी पतंग की डोर को हमेशा भगवान से जोड़े रखे। जीवन मे चाहे कितनी भी सफलता मिले पर कभी भगवान से विमुख नही होना चाहिए। अपनी सफलता को उस भगवान की कृपा मानकर हमेशा उनके श्रीचरणों में अपनी प्रीति बनाए रखना चाहिए।

।।जय श्रीराम।।

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

भगवान शिव के ग्यारह रुद्रों की उत्पत्ति कैसे हुई!!


शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव के 11 रुद्र अवतार हुए हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध छिड़ गया। इसमें दानव जीत गए और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया, हारे हुए सभी देवता बड़े दु:खी मन से अपने पिता कश्यप मुनि के पास गए। उन्होंने पिता को अपने दु:ख का कारण बताया और उनसे अपना राज पाठ वापस दिलाने के लिए प्रार्थना की। कश्यप मुनि परम शिवभक्त थे। उन्होंने अपने पुत्रों को आश्वासन दिया और काशी जाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना शुरु कर दी। उनकी प्रगाण भक्ति देखकर भगवान भोलेनाथ अत्यंत प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वर मांगने को कहा। 

कश्यप मुनि ने देवताओं की भलाई के लिए उनके यहां पुत्र रूप में आने का वरदान मांगा।  भगवान शिव ने कश्यप को वर दिया और वे उनकी पत्नी सुरभि के गर्भ से ग्यारह रुपों में प्रकट हुए। यही ग्यारह अवतार रुद्र कहलाए। ये देवताओं के शोक के निवारण के लिए प्रकट हुए थे इसीलिए इन्होंने देवताओं को पुन: स्वर्ग का राज दिलाया। धर्म शास्त्रों के अनुसार यह ग्यारह रुद्र सदैव देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में ही रहते हैं।

ग्यारह रुद्रों के नाम इसप्रकार हैं-
1- कपाली 
2- पिंगल 
3- भीम 
4- विरुपाक्ष 
5- विलोहित 
6- शास्ता 
7- अजपाद 
8- अहिर्बुधन्य 
9- शंभु 
10- चण्ड 
11- भव

शनिवार, 20 मई 2017

हम जानते है पर मानते नहीं!!

संसार का यह नियम है की जब तक किसी व्यक्ति या वस्तु के बारे में हम जान न ले उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती। गोस्वामीजी ने भी मानस में कहा है क़ि:-

"जाने बिनु न होई परतीती। बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥"

अब प्रश्न यह उठता है की क्या हम उस भगवान् के बारे में नहीं जानते? क्या हमें यह नहीं पता की भगवान् होते है? क्या हमें नहीं पता की भगवान् से ही यह सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन, पालन और संहार होता है? क्या हम यह नहीं जानते की भगवान् हमारे ह्रदय में हमेशा निवास करते है? क्या हम नहीं जानते की भगवान् हमारे द्वारा किये गए प्रत्येक कर्मो को जानते है और उन कर्मो के हिसाब से फल प्रदान करते है?

ऐसे अनेक से प्रश्न है जिनके बारे में हम सभी प्रायः अपने माता-पिता, गुरुजनो, कथा वाचको, पुराणों, वेदों आदि के माध्यम से श्रवण मनन और चिंतन करके कुछ न कुछ हम समझते है, जानते है।

हम सभी किस न किसी प्रकार से भगवान् की भक्ति करते है पर चिंतन का विषय यह है की उस भक्ति का प्रयोजन क्या है? क्या हम यह भक्ति अपनी कामनाओ के पूर्ति के लिए करते है? अथवा भगवान् को प्राप्त करने के लिए? 

आहार निद्रा भय मैथुन ये सभी जीवो में होता है पर मनुष्य को भगवान् ने सोचने समझने की शक्ति प्रदान की है और हम उस शक्ति का प्रयोग कर उस भगवान् रुपी परामानंद को जानने का प्रयत्न कर सकते है अथवा यदि उस आनंद कन्द भगवान् की कृपा हम पर हो गई तो हम उसे जान भी सकते है। 

प्रायः हम सभी भगवान् के बारे में बहुत कुछ जानते है पर क्या हम भगवान् को मानते है? वस्तुतः यह प्रश्न बहुत जटिल है। नास्तिक व्यक्ति की पहचान करना बहुत आसान है पर आस्तिकता के पीछे जो नास्तिकता छुपी हुई है उसका पहचान कर पाना बहुत कठिन है। हम सभी वेदों, पुराणों, उपनिषदों, और एनी धार्मिक ग्रंथो में लिखी हुई बातो को समझते है, उन बातो को जानते है पर उस जानने का दायरा क्या है? क्या हम उसे एक सिद्धांत के रूप में जानते है अथवा उसे अपने व्यवहारिक जीवन में भी आत्मसात करते है। आज हमें कथाओ के माध्यम से हो अथवा रास्ते चलते ट्रेनों या बसो में हो बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आप को 10 मिनट में ज्ञान की बड़ी बड़ी बातें कर भगवान् से मिलाने का दावा कर दे। पर कभी वो ज्ञानी व्यक्ति स्वयं अपने व्यवहार जगत में उन सिद्धान्तों का पालन करते है अथवा नहीं। आज इस ब्लॉग के माध्यम से हम लोग भी आप तक कुछ न कुछ भगवत तत्व के बारे में पहुचाने का प्रयास करते है पर यह भी सत्य है की हम खुद भी अपने द्वारा कही गई सभी सैद्धांतिक बातो को अपने व्यवहारिक जगत में नहीं उतार पाते। कहने का तात्पर्य केवल इतना है की हम सभी सिद्धान्ततः तो बहुत कुछ जानते है की धर्म के अनुसार क्या अच्छा है और क्या बुरा है पर जब उसे मानने की पारी आती है तब हम उन धर्म-शस्त्रो में लिखी बात को न मान कर अपने मन के अनुसार चलने लगते है क्योकि मन हमारे कामनाओ को जो अनुकूल हो ऐसी बातें करता है अर्थात हमारा मन हमारे कामनाओ के वश में है और यह वही कार्य करता है जिससे हमारी कामनाये पुष्ट हो। भगवान् की भक्ति हो अथवा धर्म कर्म के प्रति श्रद्धा इन बातो का सैद्धांतिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक आचरण भी परम आवश्यक है। अतः आप अपने भगवान् धर्म आदि के बारे में जाने सुने सोचे मनन करे चिंतन करे लोगो को बताये उनको जागरूक करे सभी बाते बहुत अच्छी है पर इन बातो के साथ साथ उन बातो को अपनी व्यवहारिक जीवन में अवश्य उतारे तभी उसका परम लाभ मिल पायेगा वरना आप का किया गया सारा परिश्रम व्यर्थ है।