रामराज्य कहाँ स्थापित होगा:- आज के इस कलियुग में राम राज्य की स्थापना हो पाना अत्यंत कठिन है। पर यदि राम राज्य की स्थापना बाहर नहीं हो सकती तो हमें कोशिस करनी चाहिए की हम अपने ह्रदय पटल पर राम राज्य की स्थापना कर सके। पर राम राज्य की स्थापना हो कैसे?
जिस प्रकार हमारे लौकिक जगत में यदि किसी विशेष व्यक्ति को किसी स्थान पर जाना हो तो पहले उनके सेवक जा कर उस स्थान का निरिक्षण परिक्षण करते है और सब कुछ ठीक हो तब वह विशेष व्यक्ति उस स्थान पर जाते है।
रामराज्य कब स्थापित होगा:- श्रीराम का अवतार चतुर्व्यूह रूप में राम,लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न के रूप में हुआ और उनकी शक्तियाँ मिथिला में प्रकट हुई। जब हम अपने ह्रदय में राम राज्य की स्थापना का संकल्प करते है तो श्रीराम के अनुज अपनी शक्तियो सहित आ कर पहले हमारे ह्रदय रुपी मकान का निरिक्षण करते है कि वास्तव में हमारा ह्रदय श्रीराम के निवास करने योग्य है अथवा नहीं।
यदि हमारा ह्रदय उस योग्य नहीं की श्रीराम वहा पर निवास करे तो उनके सारे अनुज अपनी शक्तियो के साथ इस योग्य बनाते है कि हमारे ह्रदय में राम राज्य की स्थापना हो सके। अतः यदि हमें अपने ह्रदय में राम राज्य स्थापित करना है तो पहले अपने ह्रदय पटल को अयोध्या और मिथिला बनाना होगा जिसमे सभी अनुजो सहित श्रीराम अपनी शक्तियो के साथ निवास करें।
रामराज्य कैसे स्थापित होगा:- आइये क्रम से जाने की कैसे श्रीराम के अनुज एक एक करके हमारे ह्रदय को रामराज्य की स्थापना योग्य बनाते है:-
शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति:- श्रीराम तत्व को पाने के लिए सबसे पहले उनके छोटे भाई शत्रुघ्न का आश्रय लेना पडेगा क्योकि शत्रुघ्न के नाम लेने मात्र से शत्रुओ का नाश हो जाता है शत्रुओ का पराभाव हो जाता है।
"जाके सुमिरन ते रिपु नासा।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।"
पर हमारे ह्रदय में किस तरह के शत्रुओ का निवास है तो वे शत्रु है काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि अनेक शत्रुओ का हमारे हृदम में निवास है जब तक ये शत्रु हमारे ह्रदय से बाहर न चले जाए तब तक रामजी हमारे ह्रदय में विराजमान नहीं होंगे।
इस कार्य के लिए शत्रुघ्न की शक्ति श्रुतकीर्ति सहायता करती है। श्रुतकीर्ति का अर्थ है भगवान् की कीर्ति को अपने कर्ण पुटो से श्रवण करना। तो जब हम भगवान् की मंगल मयी कथा का श्रवण करते है तो शत्रुघ्न जी हमारे ह्रदय में आ कर सभी प्रकार के ह्रदय में छुपे हुए शत्रुओ का नाश कर देते है।
"प्रथम भगति संतन कर संगा।
दूसरी गति मम कथा प्रसंगा।।"
जब हम संतो का संग करके उनसे भगवान् के दिव्य गुणानुवादो का श्रवण करते है तब हमारे सभी शत्रुओ का नाश हो जाता है और हमारा मन जहा काम क्रोध आदि ने अपना कब्जा किया हुआ था वहा शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति का निवास हो जाता है।
लक्ष्मण-उर्मिला:- दूसरे चरण में शत्रुघ्न के बड़े भाई लक्ष्मण आते है। लक्ष्मण का अर्थ है - जिसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो वह लक्ष्मण है। श्रीराम को वन जाने की आज्ञा मिली रामजी ने लक्ष्मण से कहा भाई तुम यहाँ रह कर माता पिता और प्रजाजनों की सेवा करो। तब लक्ष्मण जी ने कहा:-
"गुरु पितु मातु न जानहुँ काऊ।
करहूँ स्वभाव नाथ पति जाऊ।।"
लक्ष्मण जी ने स्पस्ट कह दिया की हे प्रभु मै न माता को जानता हु न पिता को और ना की गुरुजनो को। राम जी ने कहा फिर किसे मानते हो? लक्ष्मण जी ने कहा:-
"मोरे सबहिं एक तुम स्वामी।
दीन बन्धु उर अंतरयामी।।"
"माता रामो मत्पिता रामचंद्रः, स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।
सर्वस्वं में रामचन्द्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जानेः।।"
लक्ष्मण जी बोले की मेरे माता पिता सखा श्वामि सभी आप ही हो और मै आप के सिवा दूसरे किस को जानता ही नहीं। इसप्रकार लक्ष्मण जी का एकमात्र लक्ष्य है अपने प्रभु श्रीराम की सेवा उसके अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं भाता।
जब हमारे ह्रदय की भी ऐसी ही अवस्था हो जाय की रामजी के अलावा और किसी बात में मन न लगे तो समझो की लक्ष्मण जी का आगमन हमारे ह्रदय में हो गया। लक्ष्मण जी का एक ही आदर्श है:-
"जो न मेरे राम का, सो न मेरे काम का।"
रामजी के प्रतिकूल हुए तो चाहे पिता दशरथ, जनकजी, परशुरामजी, सुग्रीव हो लक्ष्मण जी सबसे लड़ने भिड़ने को तैयार और यदि रामजी के अनुकूल है तो कहे वह बन्दर हो भालू हो लक्ष्मण जी सभी का सम्मान करते है।
पर जब लक्ष्मण जी आते है तो साथ में उनकी शक्ति उर्मिला भी आती है। जब हमारे ह्रदय में प्रभु श्रीराम से मिलने की अत्यंत उत्कण्ठा हो तो समझ लेना चाहिए की हमारे ह्रदय में उर्मिला का आगमन हो गया है।
प्रभु कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे, कब मिलेंगे इसकी निरंतर उत्कण्ठा बढ़ती जावे तब समझलो की हमारा लक्ष्य सुदृण है और लक्ष्मण-उर्मिला का जोड़ा हमारे ह्रदय पटल पर आ गया है।
भरत-माण्डवी:- लक्ष्मण जी के बाद उनसे बड़े भाई भरत जी का आगमन होता है। भरत का अर्थ है भर देने वाला। भरत जी श्रीराम के साक्षात प्रेम विग्रह है। भरत जी के भीतर रामजी का प्रेम इतना भरा हुआ है की जो इनका स्मरण कर ले उसके ह्रदय से विषय रस को निकाल कर रामरस से परिपूर्ण कर देते है।
"भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होई भव रस बिरति।।"
जब हमारा ह्रदय भरतजी के द्वारा राम रस से परिपूर्ण हो गया तब उनकी शक्ति माण्डवी प्रकट होती है। माण्डवी के प्रकट होने का लक्षण है की ब्रह्माण्ड के सारे चराचर प्राणियो के प्रति ह्रदय में ऐसा प्रेम उमड़े की जैसा माँ का अपने बच्चे के प्रति प्रेम होता है।
रामजी-सीताजी:- इसप्रकार जब तीनो भाई अपनी शक्तियो के सहित हमारे ह्रदय में विराजमान हो जाएंगे तब रामजी हमारे ह्रदय में आने को प्रकट होंगे। रम क्रीडायाम धातु से शब्द बनता है राम जिसका अर्थ होता है रमण करना। अर्थात जो योगियो के ह्रदय में रमण करे या जिन तत्व में योगी रमण करे वे श्रीराम है।
रामजी क्या है?
रामजी का स्वरुप क्या है?
"जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।।"
रामजी साक्षात आनंद के सागर है। अतः जब हमारे ह्रदय में रामराज्य होगा तब हमारे ह्रदय में आनंद का ही निवास होगा। रामजी के आने से हमारे सारे अमंगल का नाश हो जायगा और हमारा ह्रदयभवन मंगलमय हो जायेगा।
"मंगल भवन अमंगल हारी।"
परंतु जब तक हमारा यहाँ शरीर है हम तीन तरह के ताप-दैहिक दैविक और भौतिक से घिरे होते है। प्रारब्ध के अनुसार हमें को संताप का कष्ट उठाना है वह तो उठाना ही पड़ता है। तो इस संताप को दूर करने के लिए माता सीता जी प्रकट होती है।
भीषण गर्मी हो तो हम सूर्य को तो अस्त नहीं कर सकते पर हां छाता ले कर या किसी वृक्ष की शीतल छांव का आश्रय लेकर हम उस ताप से अपना बचाव कर लेते है।
"दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥"
इसीप्रकार माता सीता अपनी करुणामयी कृपा की छाँव हमारे पर डालती है और जीव को जो त्रिताप के संताप है उससे रक्षा करती है। तो श्रीराम हमारे भीतर आनन्द के साक्षात विग्रह के रूप में विराजमान और बहार सीता जी अपनी कृपा की छांव से हमारे संतापो का नाश कर आनंद प्रकट करती है तो भीतर भी आनंद और बहार भी आनंद।
"राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं॥"
इसप्रकार इस संसार में रामराज्य आये या न आये हम अपने ह्रदय पटल में रामराज्य की स्थापना अवश्य कर सकते है।
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