मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

जानिये शुखदेव जी ने कैसे देवताओ के अमृत को ठुकराया।

द्वापर के अंत में जब राज परीक्षित को सातवे दिन सर्प दंश से मरने का श्राप लगा और श्री शुखदेव परमहंश उनको भागवत कथा सुनाना प्रारम्भ करने वाले थे तब वह पर स्वर्ग के देवता प्रकट हुए उनके हाथ में अमृत का कलश था और वे बोले की हे शुखदेव जी आप ये अमृत का कलश ले कर राज परीक्षित को इस अमृत का पान करा दीजिये ताकि वे अजर अमर हो जाए और ये कथामृत जो आप परीक्षित को सुनाने जा रहे है ये कृपा करके हमें सूना दीजिये।

 शुखदेव जी देवताओ के इन वचनो को सुन कर मुस्कुरा दिए और बोले हे कुटिल देवताओ तुम यहाँ मुझ से विनिमय करने आए हो तो सुनो किन्ही भी दो वस्तुवों का आपस में विनिमय तभी होता है जब दोनों सामान कीमत की हो। पर कहा तुम्हारा ये काँच के टुकड़ो सा सुधामृत और कहा कोटि मणियों की तरह मेरा कथामृत इन दोनों की कोई तुलना ही नहीं तो इनका विनिमय कैसे हो सकता है।

 शुकदेव जी कौन है ? शुकदेव जी व्यास पुत्र है जो की माँ के गर्भ में 12 वर्षो तक बैठे रहे और भगवान् के आश्वाशन पर की तुम गर्भ से बहार आ जाओ तुम्हे मेरी माया स्पर्श नहीं करेगी कहने के बाद पैदा हुए ऐसे शुद्ध मुक्त संत हमारे शुकदेव जी महराज जिनके पास देवता सुधामृत ले कर आय। 

शुखदेव जी ने देवताओ से कहा हे कपटी देवताओ तुम यहाँ यदि श्रोता बन कर आते तो मै तुम्हे भगा थोड़ी देता दुसरो के साथ बैठकर तुम भी कथा सुन लेते पर तुम यहाँ सौदागर बन कर आय व्यापारी बन कर आए इस लिए तुम भागवत सुनने के अधिकारी नहीं हो और शुकदेव जी ने देवताओ को कथामृत देने से मन कर दिया और देवताओ को खली हाथ ही लौटना पड़ा।


फिर सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए और शिकायत करके ब्रह्मा जी से बोले की हे पितामह हम देवता शुखदेव जी के पास अमृत का कलश ले कर गए थे की अमृत का पान शुखदेव को करा कर कथामृत हमें दे दो पर उन्होंने हमारे अमृत को कांच का टुकड़ा और हमें व्यापारी करके भगा दिया और वह बैठे बाबा बैरागी लोगो को मुफ़्त में कथामृत का पान करा रहे है। ब्रह्मा जी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ तब उन्होंने कहा की देवताओ थोडा इंतिजार करो देखे की सात दिन की कथा के बाद परीक्षित का क्या होता है। फिर सात दिन के बाद जब राजा परीक्षित को मोक्ष पद की प्राप्ति हुई। तब ब्रह्मा जी ने तराजू मंगा कर एक पलड़े में सुधामृत और एक पलड़े में कथामृत रखा और तुलनात्मक अध्यन किया और पाया की:-

1 स्वर्ग का सुधामृत केवल पुण्य कर्म करके स्वर्ग गए देवताओ को ही प्राप्त है जबकि कथामृत सभी को सुलभ है कहे वो पापी हो या पुण्यात्मा हर कोई कथामृत का अधिकारी है।

2 स्वर्ग के देवताओ के पुण्य नष्ट होने पर उनको फिर से मृत्यु लोक में भेज दिया जाता है "क्षिण्ये पुण्ये मरतलोकं विशन्ति" अतः उनके मन में हमेशा भय ताप और संताप व्याप्त होता है। जबकि कथामृत का पान करने से मनुष्य के सारे ताप पाप संताप नष्ट हो जाते है और मारने के बाद भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त करते है जहाँ से कभी भी पतन नहीं होता।

3 स्वर्ग का सुधामृत सिमित है अतः बहोत ही कृपणता के साथ पिलाया जाता है की वह समाप्त न हो जाय। जबकि हरि कथामृत असीमित है " हरि अनंत हरिकथा अनंता", "राम चरित सतकोटि अपारा" अर्थात कथामृत कभी समाप्त नहीं होता चाहे जितना भी इसका पान कराया जय।

इस प्रकार अंत में ब्रह्मा जी ने प्रमाणित किया की स्वर्ग के सुधामृत से हरी कथामृत अधिक श्रेष्ठ है और दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती।

"बड़े भाग्य मानुस तनु पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथहि गावा।"


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