हम प्रायः तीर्थ स्थानों में दर्शन पूजन भजन आदि करने जाते है। तीर्थ जड़ है, मृत्तिकामय है। जब कभी कोई तीर्थ जा कर पूजन भजन करता है तब जा कर उसका किसी काल में कल्याण होता है। परंतु संत तो चलते फिरते जीवन्त तीर्थ है। तीर्थ का तीर्थत्व संतो से ही प्राप्त होता है।
संत के दर्शन मात्र से तीर्थ दर्शन का फल प्राप्त होता है। संत चैतन्य तीर्थ होते है। संत जिस स्थान में चरण रख देते है वही तीर्थ हो जाता है। संत के दर्शन मात्र से ही कल्याण हो जाता है। संत जहाँ निवास करे वही तीर्थ होता है। जो तीर्थ पर विशवास करे पर संतो को ना माने उस से बड़ा अभागा इस संसार में कोई नहीं।
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