मंगलवार, 9 मई 2017

भक्त प्रह्लाद के लिए खम्भे से प्रकट हुए थे भगवान् नृरसिंह

भगवान् श्रीहरि नारायण का एक अवतार हुआ है नरसिंह। नरसिंह अवतार भगवान् के आवेशावतार है। भक्त प्रह्लाद की अकिंचन भक्ति पर द्रवित हो भगवान् ने हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए यह विचित्र अवतार जिसमे मुख सिंह का और बाकी का शरीर मनुष्य का धारण किये। आइये जाने भगवान् के इस अवतार का रहस्य क्या है।

भगवान् श्रीहरि नारायण अपने दिव्य बैकुंठ लोक में नित्य निवास करते है और उनके द्वार पर उनके नित्य पार्षद जय-विजय द्वारपाल बने द्वार पर सेवा करते है। एक बार की बात है ब्रह्मा जी की संकल्प सृष्टि से उत्पन्न उनके मानस पुत्र सनत, सनातन, सनन्दन और सनत कुमार भगवान् विष्णु के दर्शन के लिए बैकुंठ पहुचे। द्वार पर जय-विजय द्वारपाल बने खड़े थे, जैसे ही सनकादिक भाइयो ने बैकुंठ में प्रवेश करना चाहा की जय-विजय ने उन्हें रोक दिया। इस पर सनकादिक ने उन्हें तीन जन्म तक राक्षस होने का श्राप दे दिया। 

जब यह बात भगवान् विष्णु को पता चली तब वे भी द्वार पर आ गए और सनकादिक से अपने द्वारपाल द्वारा किये गए कृत्य के लिए क्षमा मांगी और उनकी मुक्ति का उपाय पूछा। तब सनकादिक बोले की हे प्रभु ये आप के द्वारपाल है तो आप को ही इनके उद्धार के लिए धरती पर जन्म लेना पडेगा।

 इस प्रकार कालान्तर में जय-विजय के तीन अवतार-हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप, रावण-कुम्भकर्ण और शिशुपाल-दंतवक्र के रूप में हुआ जिनका उद्धार भगवान् के अलग अलग वाराह, नृरसिंह, राम और कृष्णवतार ले कर किया।
भगवान् की नृरसिंह अवतार की कथा हिरण्यकश्यप से जुडी हुई है। 

जय-विजय ने पहला राक्षस स्वरुप हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में पाया। हिरण्याक्ष ने धरती को रसातल में डूबा दिया तो भगवान् ने ब्रह्मा जी के नासिका से वाराह रूप धारण कर प्रकट हुए और हिरण्याक्ष का उद्धार किया। हिरण्याक्ष के वध से उसका भाई हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोध से भर उठा और विष्णु से बदला लेने का संकल्प किया। 

उसने एक कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे अमरत्व का वरदान माँगने लगा। ब्रह्माजी ने कहा की अमर में मै स्वयं ही नहीं हु तो तुम्हे कैसे अमरत्व प्रदान कर दू। तुम अमरत्व छोड़ कर कोई दूसरा वरदान मांग लो। इस पर हिरण्यकश्यप ने फिर वरदानों की झड़ी लगा दी और ब्रह्मा जी से कह उठा-

 न मै दिन में मरू न रात में।
न अस्त्र से मरू न सस्त्र से।
न मै देवताओ से मरू न दानवों से यहाँ तक की आप की बनाई हुई सृष्टि से मै किसी से न मरू।
 न मै घर के अंदर मरू न बहार।
न मै पृथ्वी पर मरू न आकाश पर।
 न मै आप के बनाय हुए बारह माह में से किसी माह में मरू।

इस प्रकार उसने वरदानों की झड़ी लगा दी। ब्रह्माजी ने उसके वचनो को सुनकर मुस्कुराये और बोले की आज तक बहुत से माँगने वाले देखे पर तुझ सा मांगने वाला नहीं पाया। पर तूने तपस्या भी दुसरो से कठिन की है इसलिए मै तुम्हे सभी वरदान देता हूँ। ब्रह्माजी ने एवमस्तु अर्थात ऐसा ही हो कहकर वहा से अंतर्ध्यान हो गए। 

उधर जब हिरण्यकश्यप तपस्या करने गया था तब उसके छोटी पत्नी कयाधु गर्भ से थी। गर्भावस्था में इन्द्र ने उसका हरण कर लिया और अपने स्वर्ग लोक ले जा रहा था की वहा उसकी भेंट नारद जी से हो गई। नारद जी ने इन्द्र को उसके इस कृत्य के लिए बहुत फटकारा और कयाधु को इन्द्र के बंधन से मुक्त कराकर अपने साथ ले गए। 

नारद जी कयाधु को नित्य भगवान् के दिव्य गुणानुवादो को सुनाते थे और गर्भ में स्थित प्रह्लाद जी उसे श्रवण करते थे इस प्रकार गर्भ से ही प्रह्लाद जी की भगवान् श्रीहरि नारायण के प्रति सहज भक्ति प्रकट हो गई। कालान्तर में जब हिरण्यकश्यप तपस्या से वापस आया तब नारद जी ने कयाधु और उसके पुत्र प्रह्लाद को सुरक्षित उसके पास पहुचा दिया। 

फिर हिरण्यकश्यप ने स्वर्ग पर आक्रमण कर इन्द्र को परास्त कर दिया और स्वर्ग सहित तीनो लोको में अपना अधिकार कर लिया और यह घोषणा करवा दी की आज से कोई भी विष्णु सहित किसी भी देवी-देवताओ की पूजा नहीं करेगा। सारे संसार में केवल मेरी ही पूजा होगी। इसप्रकार वह अपने आप को भगवान् समझने लगा। 

उधर प्रह्लाद की अवस्था धीरे-धीरे बड़ रही थी और साथ ही साथ उसकी भगवान् के प्रति भक्ति भी बढ़ती जा रही थी। यह बात जब उसके पिता को पता चली तब उसने प्रह्लाद को बहुत समझाने का प्रयत्न किया और प्रह्लाद को दैत्यों के गुरुकुल में भर्ती करा दिया। पर गुरुकुल में भी प्रह्लाद जी को हिरण्यकश्यप की भक्ति का पाठ नहीं पढाया जा सका। उल्टे प्रह्लाद जी ने अन्य विद्यार्थियो सहित अपने गुरु जी को भगवान् श्रीहरि की भक्ति का पाठ पड़ा दिया।

जब यह बात हिरण्यकश्यप को पता चली तब वह अत्यंत क्रोध से भरा हुआ प्रह्लाद को विभिन्न प्रकार की प्रताड़ना देने लगा। प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे गिराया गया। सर्पो से भरे अंधे कुवें में फेकवाया गया, जल में डूबा कर, अग्ने से जला कर, यहाँ तक की प्रह्लाद की माँ कयाधु के हाथ से विष भरा दूध पिला कर मारने का प्रयास किया गया पर प्रह्लाद की भक्ति और भगवद् कृपा से उसका बाल भी बाँका नहीं हो सका। 

अंत में हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को स्वयं मारने का निर्णय लिया और उसे एक अपराधी की भाँती अपने राज दरबार में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। फिर क्या था सैनिको ने प्रह्लाद को भरी सभा में ला कर एक खम्भे से बाँध दिया। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को अन्तिम बार समझाते हुए कहा की तू उस नारायण की भक्ति छोड़ मुझे भगवान् स्वीकार कर ले। 

परंतु प्रह्लाद जी ने यह कह कर कि भगवान् तो केवल श्रीहरि नारायण  ही है और मै उन्ही की भक्ति करूँगा ऐसा कहकर हिरण्यकश्यप को भगवान् मानने से मना कर दिया। इस पर हिरण्यकश्यप को बहुत क्रोध आया और उसने अपनी खड्ग प्रह्लाद पर तान दी और कहा आज तेरी मृत्यु मेरे हाथो निश्चित है देखता हूँ आज तेरी रक्षा कौन करता है, तू उस नारायण को अपना भगवान् मानता है ना, तो बता कहा है तेरा वो भगवान्, बुला उसे, बोल की आ कर वो तेरी रक्षा करे। इस पर प्रह्लाद जी ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा की हे पिताजी वो श्रीहरि नारायण तो सभी जगह व्याप्त है, वे ही आप में है और वे ही मुझ में है, वे ही इस खड्ग में है और वे ही इस खम्भे में।

 हिरण्यकश्यप ने जैसे ही प्रह्लाद के इन वचनो को सूना क्रोध से पागल हो गया और प्रह्लाद से कहने लगा की यदि तेरा भगवान् इस खड्ग में भी है और इस खम्भे में भी तो ले आज तेरे इस खड्ग वाले भगवन से इस खम्भे वाले भगवान् का मै वध करता हूँ और अपना खड्ग उठा लिया। उधर प्रह्लाद जी ने हाथ जोड़ कर अपनी आँखे बंद कर ली और श्रीहरि का स्मरण करने लगे। हिरण्यकश्यप ने जैसे ही उस खम्भे पर अपना खड्ग का प्रहार किया की उस खम्भे से भगवान् श्रीहरि नारायण ने अपना आवेशावतार नृरसिंह के रूप में ले लिया।

भगवान् जब प्रकट हुए तब एक दिव्य तेज उनके मुख मण्डल पर छाया था। उनके इस तेज से हिरण्यकश्यप सहित सभी दैत्यों की नेत्र में अंधलकार छा गया। उनके श्रीअंग में मुख सिंह का था और वे काल को भी भयभीत करने वाली गर्जना कर रहे थे। उनका मुख अत्यंत क्रोध से भरा हुआ था मानो वे सम्पूर्ण विश्व का लय करने आये हो। उनका बाकी का श्रीअंग मनुष्य की भाँती था। 

भगवान् नरसिंह ने प्रकट होते ही हिरण्यकश्यप पर एक मुस्टिक का प्रहार किया की उसके हाथ से खड्ग जमीन पर जा गिरा। फिर दोनों के बीच द्वन्द युद्ध प्रारम्भ हो गया। भगवान् ने हिरण्यकश्यप के युद्धाभिमान को तोड़ दिये और उसे अधमरे हालत में ला दिए। भगवान् ने उसे घसीटते हुए उसके राजभवन के दहलीज पर ले आये और उसे अपनी गोद में बिठा लिए। अब भगवान् ने उसे ब्रह्मा जी के वरदानों को याद करने कहा:-

तूने दिन या रात्रि में न मरने का वरदान माँगा था तो देख अभी न दिन है न रात संध्या का समय है।

तूने अस्त्र-शस्त्र से न मारने का वर माँगा था तो मेरे ये नाखून न अस्त्र है न शस्त्र।

तूने ब्रह्मा की सृष्टि में किसी से न मारने का वर माँगा था तो मुझे ब्रह्मा ने नहीं अपितु मैंने ब्रह्मा को पैदा किया है।

तूने घर के भीतर या बहार न मरने का वर माँगा था तो इस समय तू न घर के बहार है न भीतर बल्कि देहलीज पर है।

तूने धरती, आकाश या पाताल में न मरने का वर माँगा था तो तू न धरती पर है न आकाश में इस समय तू मेरी गोद में है।

तूने बारह महीने में से किसी महीने में न मरने का वर माँगा था तो अभी बाड़ मास चल रहा है।

इस प्रकार भगवान् नृरसिंह ने हिरण्यकश्यप को सारे वरदान गिनाये और उसके विरुद्ध उसकी वध का उपाय कहा और अपने हाथ को ऊपर कर उंगलियो से नखों को प्रकट किया और हिरण्यकश्यप की छाती पर अपने नखों को गड़ा दिया और छाती को फाड़ते हुए उसका वध कर दिया। भगवान् के हाथ हिरण्यकश्यप के रक्त से तर तो गए। 

हिरण्यकश्यप का वध करने के उपरान्त भी भगवन का क्रोध शांत नहीं हुआ तब देवताओ ने आ कर उनकी स्तुति की पर भगवान् की क्रोध के आगे अधिक समय नहीं ठहर सके। फिर ब्रह्मा जी ने आ कर स्तुति की पर वे भी भगवान् के क्रोध को शांत नहीं कर पाये बल्कि ब्रह्मा जी ने ही ऐसा विचित्र वरदान हिरण्यकश्यप को दिया है यह जान कर उन पर और भी क्रोधित हुए। फिर भगवान् शंकर ने उनके क्रोध को शांत करना चाहा पर भगवान् शांत नहीं हुए। 

इस पर देवताओ ने बैकुंठ जा कर माता लक्ष्मी से प्रार्थना की कि हे माता प्रभु ने विचित्र नृरसिंह स्वरुप धारण किया है और उनके क्रोध की अग्नि से सम्पूर्ण सृष्टि जल कर भस्म होने को है अतः आप चल कर भगवान् ले इस क्रोध को शांत करने की कृपा करे। माता लक्ष्मी देवताओ के साथ हिरण्यकश्यप के उस राज भवन में आई और प्रार्थना करने जैसे ही आगे बड़ी की भगवान् ने एक जोर की हुंकार भरी और माता लक्ष्मी भयभीत हो कर वापस चली गई। 

सभी ने प्रयास करके देख लिया पर किसी ने भी भगवान् के क्रोध को शांत नहीं कर पाया। अंत में शिवजी ने युक्ति निकाली की प्रभु ने यह विकराल स्वरुप भक्त प्रह्लाद के लिए धारण किया है अतः प्रह्लाद ही उनके इस क्रोध को शांत कर सकता है। ऐसा विचार कर प्रह्लाद को भगवान् के सामने स्तुति करने भेज दिया।

प्रह्लाद जी को जैसे ही भगवान् ने देखा तो उनका कुछ क्रोध शांत हुआ और उन्होंने प्रह्लाद को अपने निकट बुला कर अपनी गोद में बिठा लिया और प्रह्लाद पर भगवान् का वात्सल्य इतना उमड़ा की वे अपनी जीभ निकालकर प्रह्लाद को चाटने लगे। भगवान् के इस अत्यंत ममतामयी व्यवहार के कारण उन्हें भक्त वत्सल कहा जाने लगा। भगवान् ने बहुत समय तक अनेक प्रकार से बिना कुछ बोले प्रह्लाद पर अपना दुलार लुटाते रहे। 

फिर प्रह्लाद से बोले की हे पुत्र तुमने इतनी छोटी सी अवस्था में केवल मेरा नाम लेने के कारण इतना कष्ट सहा है और मुझे आने में कितनी देर हो गई। भगवान् ने कहा की तुम से पहले किसी ने भी मेरा नाम लेने के कारण ऐसी यातनाये नहीं सही है हे पुत्र तुम मुझे क्षमा कर दो कहा तो भगवान् के क्रोध को सभी देवी देवता मिलकर भी शांत नहीं कर पाये और प्रह्लाद जी को देख कर भगवान् नरसिंह का क्रोध भी शांत हो गया और वो अपने भक्त से क्षमा माँगने लगे। भगवान् ने प्रह्लाद से कहा कि हे पुत्र मेरे इस स्वरुप के सामने कोई देवी देवता भय वश सामने नहीं आ सके फिर कहे वो मेरे बेटे ब्रह्मा हो या शंकर जी हो या मेरी पत्नी रमा हो कोई भी मेरे इस स्वरुप से डर कर सामने नहीं आ सका पर तुम बिना किसी भय के मेरे सामने आ गए। 

प्रह्लाद ने कहा की हे प्रभु मै सर्वत्र आप का ही दर्शन करता हूँ फिर कहे वह कोई मनुष्य हो देवता हो पशु हो या निर्जीव खम्भ हो मै सभी जगह आप का ही स्वरुप देखता हूँ, और प्रभु आप भय की बात करते है तो आप को पता होगा कि सिंह से गीदड़ को डर लगता है सिंह के शावक को नहीं। मै तो आप का ही पुत्र हूँ तो आप से कैसा डर।

 भगवान् प्रह्लाद के इन बातो से अत्यंत प्रसन्न हुए। फिर भगवान् ने प्रह्लाद से वर माँगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा की हे प्रभु मनुष्य के दुःख का प्रमुख कारण कामनाये है और आप मुझे वरदान माँगने को कह रहे है। मुझे कोई वर नहीं चाहिए। आप मुझे वरदान देना ही चाहते है तो ऐसा आशीर्वाद दीजिये की मेरे मन में कोई कामनाये न आये। 

भगवान् ने कहा की पुत्र तू मेरा परम भक्त है तेरे मन में किसी प्रकार की कामनाये आ ही नहीं सकती। फिर भी तू मेरी प्रसन्नता के लिए कुछ मांग। प्रह्लाद जी ने जमीन पर पड़े हुए अपने पिता हिरण्यकश्यप की तरफ देखा और भगवान् से बोले की हे प्रभु यदि आप मुझ पर प्रसन्न है और कुछ देना चाहते है तो मुझे वर दीजिये की मेरे पिता की अधोगति न हो। उन्होंने जैसे भी अपराध किया हो उन सभी से उन्हें मुक्त कर उन्हें अपना दिव्य कृपामयी आशीर्वाद प्रदान करे। 

भगवान् ने कहा की तुम धन्य हो प्रह्लाद की जिसने तुम्हे इतना कष्ट दिया उसके लिए तुम्हारे मन में ऐसी भावना है। फिर भगवान् ने कहा की जो प्रह्लाद जैसे पुत्र का पिता हो उसकी अधोगति तो हो ही नहीं सकती। भगवान् ने प्रह्लाद को आशीर्वाद दिया और अपनी दिव्य भक्ति प्रदान की।

इस प्रकार भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान् ने वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन सायं काल में नृरसिंह अवतार धारण किया था।

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