सर्प और गरुण इन दोनों जीवो की आपस में नहीं बनती दोनों एक दूसरे के विरोधी जीव है। पर क्या आप जानते है की ये दोनों एक ही पिता की संतान है और आपस में भाई है। आइये सत्ययुग की उस कथा पर विचार करे:-
कद्रू और विनता को कश्यप जी का वरदान:-
सत्ययुग में दक्ष प्रजापति ने अपनी दो बेटियों- कद्रू और विनता का विवाह कश्यप ऋषि से कर दिया। कश्यप जी की दोनों पत्नियां सामान भाव से उनकी सेवा करती थी। उनकी सेवा से प्रसन्न कश्यप जी ने दोनों से वर माँगने को कहा। सबसे पहले कद्रू ने हज़ार सामान तेजस्वी नाग को अपने पुत्र रूप में पाने की इक्षा व्यक्त की।
उसके बाद विनता ने कहा बल, तेज और शरीर शक्ति में कद्रू के 1000 संतानो से श्रेष्ठ मुझे केवल दो ही पुत्र चाहिए। कश्यप जी ने एवमस्तु अर्थात ऐसा ही हो कहकर आशीर्वाद दिया। फिर दोनों बहने प्रसन्न हो गई। कश्यपजी ने सावधानी से गर्भ की रक्षा करने की बात कही और वन की ओर तपश्या करने चले गए।
कद्रू और विनता की संतानोत्पत्ति:- समय आने पर कद्रू ने 1000 और विनता ने 2 अण्डे दिए। दासियों ने प्रसन्न होकर उन अण्डों को गर्म पात्र में रख दिया। पांच सौ वर्ष पुरे होने के बाद कद्रू के 1000 पुत्र सर्प रूप में बहार निकल आये, परंतु विनता के पुत्र बहर नहीं निकले। इस पर विनता ने एक अण्डा खुद ही फोड़ दिया। अण्डे से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका ऊपर का भाग तो परिपक्व था पर नीचे का भाग अभी पूर्णतः परिपक्व नहीं था।
विनता को उसके शिशु का श्राप:- जात शिशु ने क्रोधित होकर अपनी माँ विनता को श्राप दे दिया। शिशु ने श्राप देते हुए कहा कि जिस सौतन से तू इतना डाह करती है, जिसके कारण तूने अपने अधूरे विकशित शिशु को अण्डा फोड़ कर बहार निकाल दिया, जा तुझे उसी सौतन की 500 वर्षो तक दासता करनी पड़ेगी।
श्राप मुक्ति का उपाय:- फिर विनता ने उस शिशु से क्षमा मांगी तब शिशु ने कहा की यदि तूने दूसरा अण्डा नहीं फोड़ा तो उससे जो बालक उत्पन्न होगा वही तुझे तेरी सौतन की दासता से मुक्त करायेगा। यदि तेरी इक्षा है कि तेरा दूसरा बालक स्वस्थ्य हो बलवान हो तो 500 सौ वर्षो तक अभी और प्रतीक्षा करना।
भगवान् सूर्य के सारथी:- इस प्रकार श्राप देकर वह बालक आकाश में उड़ गया। भविष्य में उसका नाम अरुण पड़ा। अरुण भगवान् सूर्य का सारथी बना। प्रातः काल जो लालिमा हम आकाश मण्डल में देखते है यह अरुण की ही झलक है।
विनता के दूसरे संतान की उत्पत्ति:- उसके बाद शिशु के श्राप अनुसार समुद्र मंथन से निकले उच्चे श्रवा घोड़े को माध्यम बना कर कद्रू ने विनता से छल किया और उसे अपनी दासी बना ली। आगे 500 वर्ष और व्यतीत होने के बाद फिर विनता का वह दूसरा बालक स्वयं ही अण्डा फोड़ कर बिना किसी की सहायता के बहार निकल आया।
उसके तेज से दिशाएँ प्रकाशित हो गई। उसकी शक्ति, गति, दीप्ति और वृद्धि विलक्षण थी। नेत्र बिजली के सामान पीले और शरीर अग्नि के समान तेजस्वी थे। आगे चलकर गरुण ने अपनी माता विनता को कद्रू के दासत्व से मुक्ति दिलाई।
इस प्रकार कद्रू की संतान 1000 सर्प और विनता की संतान अरुण और गरुण हुए जो आपस में भाई थे।
यह भी पढ़े:-
- जब अपने भक्त के लिए अदालत पहुचे भगवान!!
- हनुमानजी के पुत्र का जन्म कैसे हुआ?
- हनुमानजी ने किया था मायावी कालनेमि का उद्धार!!
- शिवजी और विष्णु भगवान् के रंगो में विरोधाभास क्यों है?
- हनुमानजी ने क्यों धारण किया पंचमुख?
- हनुमानजी का जन्म (प्राकट्य) कैसे, कब और कहाँ हुआ!!
- हनुमानजी के शिक्षा प्राप्त करने की रोचक कहानी!!
जानिये कैसे हनुमानजी से हार गए श्रीराम!!
- हनुमानजी बाल्यावस्था में सूर्य को ही फल समझ कर खा लिए थे!!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें